बचपन का बादल
बचपन का बादल मेरा सुंदर रहा बहुत,
जीवंत रंगों की रंगोलियों सी, कलाकृतियों से अंकित अनूठ।
क्षितिज की सीमाओं से आकाश में प्रवेश करता दिखा वो,
प्रतीत हुआ जैसे उत्साहित था बहुत,
अपनी सतह की सीमा पर पीला रंग चढ़ाए था वो।
देखते ही उसको, सूखे पड़े गाँव के लोग हर्षोल्लास में नहाने लगे,
नाच-गाना हुआ बहुत, क्योंकि बारिश हुई थी कई साल बाद।
खिले नए-नए प्रकार के पौधे, मानो पानी था बना उर्वरक का।
बादल गरजा भी तो, लोग माने उसको प्यार,
देखें उसको ऐसे, कि पड़ जाए वो शांत।
भटकता बादल
बैठे रहना एक जगह मानो सज़ा थी उसकी,
ना माने था बिना काटे चक्कर चार।
और चक्कर भी काटे ऐसे,
जैसे हो रहा कोई भव्य नाच,
सारे बादल जाते थे उससे हार।
अपने साथी बादलों में भी था वो सबसे ख़ास,
क्योंकि चमक थी अलग उसमें, सबको बनाए अपना यार।
बैठे रहना एक जगह मानो सज़ा थी उसकी,
ना माने था बिना काटे चक्कर चार।
और चक्कर भी काटे ऐसे,
जैसे हो रहा कोई भव्य नाच,
सारे बादल जाते थे उससे हार।
नानी का घर और मेरा बादल
नानी घर जब जाता था, तो देखता था उसको सारी-सारी रात,
उस समय था वही दोस्त मेरा, जिससे करता था बातें दो की चार।
शाम को जब आते थे फिर सब छत पर, नानाजी के साथ,
डाला दाना पंछियों को, डाला पौधों को पानी,
दिखता था वो बैठा हुआ अपने तख़्त पर।
धीरे-धीरे मेरा ध्यान उस पर से हटने लगा,
बोझ जो बाकी चीज़ों का आने लगा,
समाज, भविष्य, पढ़ाई, ज़िम्मेदारियों में उलझने लगा,
और उस बादल से मेरा साथ छूटने लगा।
अलविदा बादल
बादल वो निकलने लगा आगे मेरे ऊपर से,
मानो नाराज़ है मुझसे किसी छोटे बच्चे की तरह।
पर नानाजी उसको मेरे अच्छे लगते होंगे बहुत,
तभी ले गया उनको अपने सिर पर बिठाए, सैर कराने के लिए।
अभी भी दिख रहा है वो मुझे,
जैसे खींच रहा हो मेरी तस्वीर,
मैं मुस्कुराना बंद करूं और वो बोले,
“स्माइल प्लीज़!”
इतने में आए आवाज़ “खिचिक”,
और वो चला जाए हमेशा के लिए,
पार क्षितिज…